कौन हैं माँ छिन्नमस्तिका

छिन्नमस्ता या ‘छिन्नमस्तिका’ या ‘प्रचण्ड चण्डिका’ दस महाविद्यायों में से एक हैं। छिन्नमस्ता देवी के हाथ में अपना ही कटा हुआ सिर है तथा दूसरे हाथ में खड्क है।
मान्यता है कि छिन्नमस्ता महाविद्या सकल चिंताओं का अंत करती है और मन में चिन्तित हर कामना को पूरा करती हैं। इसलिए उन्हें चिंतपुरणी भी कहा जाता है। चिंतपुरणी मंदिर हिमाचल प्रदेश मे है देवी छिन्नमस्ता का एक प्रसिद्ध मंदिर रजरप्पा मे है सहारनपुर की शिवालिक पहाडियों के मध्य प्राचीन शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ मे भी छिन्नमस्ता देवी का एक भव्य मंदिर है।

एक बार माँ छिन्नमस्तिका अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान के लिए गयीं । स्नान के पश्चात् माँ की दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख का आभास होने लगा । सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कुछ मांगा । माँ ने कुछ देर प्रतिक्षा करने को कहा । सहचरियों की भूख बढ़ती जा रही थी । कहते हैं की भूख कि पीड़ा से उनका रंग काला होता जा रहा था । तब सहचरियों ने नम्रतापूर्वक माँ से कहा की “मां तो भूखे शिशु को अविलम्ब भोजन प्रदान करती है” । ऎसा वचन सुनते ही भवानी ने बिना एक भी क्षण गंवाए, खडग से अपना ही सिर काट दिया । कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली । दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया तीसरी धारा जो ऊपर की प्रबह रही थी, उसे देवी स्वयं पान करने लगी । अब माँ की दोनों सहचरियां रक्त पान कर तृ्प्त हो गयीं थीं । मान्यता है की तभी से माँ को छिन्नमस्ता के रूप में जाना जाने लगा और माँ इस “छिन्नमस्तिका” नाम से विख्यात हो गयीं ।

माँ को अपने भक्त अत्यंत प्रिय हैं । भक्तों के लिए वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है माँ । यदि भक्तों के लिए माँ को अपना सर भी काटना पड़ जाये तो माँ देर नहीं करती । अपना लहू पिलाकर भी भक्तों को नया जीवन प्रदान करती है माँ । माँ का बखान करना तो अपने बस की बात नहीं है, बस यूँ ही समझ लीजिये की कुछ कुछ ऐसी है हमारी माँ छिन्नमस्तिका जय माता दी

शनि कृपा मूर्ति ईशु जी महाराज

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