बौद्ध धर्म में दुक्खा अवधारणा – The Dukkha Concept in Buddhism

दुःख धारणा बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो मुख्य रूप से गौतम बुद्ध द्वारा उपदिष्ट हुआ। यह धर्म के चार महासत्यों (Four Noble Truths) में से पहला महासत्य है। दुःख का शब्दिक अर्थ होता है ‘दुख’ या ‘अद्यात्मिक दुर्भाग्य’। यह सिद्धांत मनुष्य के जीवन के रूप में दुःख की मूलता और उसके संबंध में बोध कराता है।

बौद्ध धर्म के अनुसार, दुःख सभी जीवन के अनिवार्य और अविच्छिन्न भाग है। यह मनुष्य के जीवन के अंश को परिभाषित करने वाला अनिवार्य दुख का एक रूप है। इसका कारण मान्यता के अनुसार चाह, आसक्ति, विपत्ति, वृद्धि और मरण हैं। जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, रोग, शोक, विचित्र संघर्ष और संघर्ष से पीड़ा यह सभी मनुष्य को प्रभावित करते हैं और इसे दुःख के रूप में व्यक्त किया जाता है।

बौद्ध धर्म के अनुसार, दुःख को निष्कारण करने का मार्ग निरोध (Nirodha) है, जो मनुष्य को आत्म-ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति द्वारा दुःख से मुक्त करता है। निरोध सिद्धांत के अनुसार, दुःख का निरोध ब्रह्मचर्य, अहिंसा, संयम और आत्म-संयम के माध्यम से हो सकता है। इसे अनुशासन, संयम और साधना के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

दुःख की धारणा भारतीय जीवनशैली, विचारधारा और धार्मिकता के आधारभूत सिद्धांतों में गहरी उपस्थिति रखती है। यह मान्यता प्रभावी तरीके से अवगत कराती है कि जीवन में सुख और दुःख दोनों के अनुभव होंगे, और बौद्ध धर्म का मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य दुःख से मुक्त होकर सुखी और संतुष्ट जीवन जी सके

 

बौद्ध धर्म में दुक्खा अवधारणा – The Dukkha Concept in Buddhism

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