भगवान श्रीराम ने अपने प्रतिज्ञा पूरी की| उन्होंने बालि का वध करके सुग्रीव को भयमुक्त करके किष्किंधा का राज्य सौंप दिया| फिर कुछ दिनों के बाद अपने वायदे के अनुसार सुग्रीव ने जांबवान के नेतृत्व में अपने वानरों का समूह दक्षिण की ओर रवाना कर दिया| उस दल में जांबवान के अलावा बालि का पुत्र अंगद, नल-नील सहित अनेक पराक्रमी वानरों के साथ हनुमान जी भी थे| ऊंचे-ऊंचे पर्वत, वनों और दुर्गम स्थानों को पार करके वह दल दक्षिण समुद्र के किनारे पहुंचा| वहां सामने अगाध एवं असीम महासागर की भयानक लहरों को देखकर वानर-भालू घबरा गए| सीता की खोज कल इए सुग्रीव की दी हुई एक मास की अवधि भी समाप्त हो गई और सामने महासमुद्र| वीर वानर-भालुओं की बुद्धि काम नहीं कर रही थी| इस कारण वानरराज सुग्रीव के कठोर दंड की कल्पना करके उन्होंने कहा – “हम वापस भीं नहीं लौट सकते| माता सीता का पता लगाए बगैर अगर हम किष्किंधा पहुंचे तो सुग्रीव हमें मरवा डालेंगे|”
तभी एक कड़कती आवाज सुनकर वे चौंक पड़े| फिर कुछ क्षण बाद एक विशाल गिद्ध वहां पहुंचा और अट्टहास करने लगा- “हा, हा, हा| बहुत दिनों के बाद मुझे स्वादिष्ट भोजन मिला है|”
उस विशाल गिद्ध को देखकर हनुमान जी बड़ी निर्भीकता से बोले – “तुम कौन हो गिद्धराज? और तुम हमें किसलिए खाना चाहते हो?
गिद्ध बोला – “मेरा नाम संपाती है| मैं बूढ़ा हो गया हूं, इसलिए अपना आहार नहीं खोज पाता| आज घर बैठे ही मुझे आहार मिल गया है तो उसे क्यों छोड़ूं?”
हनुमान जी ने कहा – “ओह, कितना फर्क है गिद्ध गिद्ध में| एक जटायु था, जिसने भगवान राम के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर दिए और एक तुम हो जो हमें खा जाना चाहते हो|”
यह सुनकर संपाती बोला – “जटायु, जटायु तो मेरा छोटा भाई है| तुम्हें कहां मिला और उसकी मृत्यु कैसे हुई?”
हनुमान जी ने जटायु-रावण युद्ध की सारी घटना सुनाई जो उन्हें श्रीराम से सुनने को मिली थी| फिर बोले – “मैं श्रीराम के काम से आया हूं| दुष्ट रावण माता सीता को हरण करके ले गया है| मैं लंकापुरी जाना चाहता हूं| लेकिन कैसे जाऊं, बीच में तो इतना विशाल समुद्र है|”
जटायु की मौत का समाचार सुनकर संपाती रो पड़ा| फिर उसने हनुमान जी से कहा – “लंका यहां से कई सौ योजन दूर है। अगर तुममें से कोई लंबी छलांग लगाकर समुद्र पार करे तो लंकापुरी पहुंचा जा सकता है|”
संपाती की बात सुनकर वानर समूह में मंत्रणा होने लगी| अंगद बोला – “हममें से कौन ऐसा वीर है जो समुद्र को लांघकर लंकापुरी पहुंच सकता है?”
अंगद का वचन सुनकर पहले तो समस्त भालू-बंदर चुप हो गए| किंतु कुछ देर बाद कोई कहता, ‘मैं दस योजन लंबी छलांग लगा सकता हूं| कोई कहता बीस, कोई कहता पचास| लेकिन हनुमान जी को चुप बैठा देखा तो जांबवान ने उनसे पूछा – “पवनपुत्र! तुम चुप क्यों हो? तुम शायद भूल गए हो कि तुममें वह शक्ति है, जिसका कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता|”
जांबवान की बात सुनकर हनुमान जी को अपनी शक्ति का भान हो गया, जो वे ऋषियों के शाप के कारण भूल चुके थे| स्वयं में नवशक्ति और स्फूर्ति का अनुभव करते हुए वे लंबी छलांग लगाकर सागर के ऊपर उड़ चले| जब वे कई योजन दूर निकल गए तो मार्ग में समुद्र में स्थित मैनाक पर्वत उन्हें दिखाई दिया| जहां सर्पो की माता सुरसा रहती थी| हनुमान जी को आते देख सुरसा अपना विकराल रूप धारण कर हनुमान जी के सामने आ खड़ी हुई| उसने हनुमान जी को निगलने के लिए अपना मुंह कई योजन फैला दिया| लेकिन हनुमान जी सतर्क थे| उन्होंने भी अपना आकार बढ़ाया, जिससे कि सुरसा को उन्हें निगलने में परेशानी होने लगी| उसने और भी बड़ा रूप धारण किया| हनुमान जी भी उसी अनुपात में बढ़ गए| सुरसा रूप बढ़ा-बढ़ाकर थक गई, किंतु वह हनुमान जी को निगल न सकी|
अंत में जब वह अपनी पूरी शक्ति से विकराल रूप धारण कर चुकी तो हनुमान जी मच्छर जितना रूप धारण करके सुरसा के मुख से होकर दूसरी ओर से जा निकले| सुरसा को हैरानी के साथ आश्चर्य भी हुआ| उसके जीवन में यह पहला शिकार था, जो उसके मुंह में प्रविष्ट होकर सही सलामत बाहर निकल सका था| वह पूर्ववत रूप में आ गई| उसने हनुमान जी से पूछा – “सचसच बताओ, कौन हो तुम? कोई साधारण वानर तो नहीं दिखते| क्योंकि मेरा कोई भी शिकार आज तक मेरे हाथ से नहीं निकल सका है|”
हनुमान जी ने कहा – मैं श्रीराम का सेवक हनुमान हूं| मैं माता सीता की खोज करने लंकापुरी जा रहा हूं| क्योंकि दुष्ट रावण उन्हें हरकर ले गया है|”
श्रीराम का नाम सुनते ही सुरसा का व्यवहार एकदम बदल गया| वह विनम्र स्वर में बोली – उस भगवान राम के दूत हो, मेरे लिए यह बड़ी खुशी की बात है कि मैंने तुम्हारे दर्शन कर लिए| तुम निश्चित रहो, अब मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट न करूंगी|”
हनुमान जी ने पूछा – लेकिन माता तुम हो कौन?”
सुरसा बोली – “मैं सर्पो की माता सुरसा हूं| देवताओं ने मुझे इस मार्ग की निगरानी का काम सौंपा हुआ है| उन्होंने मझे तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था कि वास्तव में तुम लंका से कुशल लौट सकते हो या नहीं| मुझे खुशी है कि तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए|”
यह कहकर सुरसा ने उन्हें आशीर्वाद दिया और हनुमान जी पुनः उसी वेग से लंका की ओर उड़ चले| लंका के प्रवेश द्वार पर पहुंचकर हनुमान जी सोच में पड़ गए कि प्रवेश कहां से करूं? प्रवेश द्वार पर अनेक बड़ी-बडी भयंकर आकृति वाले राक्षस पहरा दे रहे थे| उनसे उलझना बेकार समझकर हनुमान जी ने सूक्ष्म रूप धारण किया और राक्षसों के बीच से निकल चले| अभी के ही कदम आगे बढ़े थे कि एक विशाल राक्षसी ने उनका मार्ग रोक लिया| यह देख हनुमान जी अपने पूर्व रूप में आ गए| उन्होंने राक्षसी को एक भरपूर घूंसा जड़ दिया| जिससे लंकिनी अचेत होक गिर पड़ी| लेकिन जब उसे होश आया तो वह गिड़गिड़ाकर बोली – “मुझे क्षमा कर दो| मुझे मत मारो| मैं तुम्हें पहचान गई हूं| मैं पितामह ब्रह्मा के आदेश से लंकापुरी की रखवाली करती हूं| मुझे ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि जब भी किसी वानर के घूंसे से तुम चेतना खो बैठोगी, समझ लेना तभी से रावण के बुरे दिन शुरू हो जाएंगे|”
लंकिनी की बात सुनकर हनुमान जी ने उसे छोड़ दिया और स्वयं आगे बढ़ गए| पूरा नगर राक्षसों से भरा पड़ा था| हनुमान जी एक ऊंचे पेड़ पर बैठ गए और विचार करने लगे कि कहां खोजूं माता सीता को? चारों ओर राक्षस दिखाई दे रहे हैं| दिन में खोजना तो मुश्किल है| रात हो जाए तो अपनी खोज शुरू करूं| रात होते ही हनुमान जी अपने छिपने के स्थान से उतरे और विभिन्न जगहों को देखते हुए आगे बढ़े| फिर एक मकान के ध्वज पर राम नाम लिखा देखकर चौंककर खड़े हो गए| उन्होंने मन-ही-मन में सोचा – ‘यह कैसा आश्चर्य, राक्षसों से भरी इस नगरी में कोई राम भक्त भी रहता है| चलकर उससे मिलूं, शायद माता सीता का कोई पता लग जाए|’
हनुमान जी उस घर में दाखिल हो गए| गृह स्वामी उन्हें देखकर चौंक उठा| वह रावण का छोटा भाई विभीषण था और भगवान राम की पूजा करता था| इसीलिए रावण ने उसे राजमहल से निकाल दिया था| विभीषण ने राजमहल से दूर अपना मकान बनाया था| हनुमान जी को देख विभीषण ने पूछा – “तुम कौन हो वानर और यहां राक्षसों के शहर में क्या कर रह हो और यहां आए कैसे?”
हनुमान जी ने कहा – “भगवान राम के अनुचर को किसी भी जगह पहुंचने में कोई बाधा नहीं आती| मैं उनका एक मामूली सेवक हनुमान हूं| लेकिन आप कौन हैं जो राक्षसों से घिरे इस नगर में रहते हुए भी भगवान राम के पुजारी हैं?”
विभीषण बोला – “मैं रावण का छोटा भाई विभीषण हूं| मेरे विचार उससे नहीं मिलते हैं| मैं राम की पूजा करता हूं और राक्षसों से घृणा| इसलिए रावण ने मुझे वहां से निकाल दिया है| तुम यहां किस प्रयोजन से आए हो?”
हनुमान जी ने कहा – “माता सीता को खोजने के लिए| दुष्ट रावण ने उन्हें हरण करके यहीं कहीं छिपा रखा है| क्या आप जानते हैं कि रावण ने उन्हें कहां रखा हुआ है?”
विभीषण बोला – “हां, रावण ने सीता को अशोक वाटिका में कैद कर रखा है| लेकिन तुम वहां कैसे पहुंचोगे? वहां तो बड़ी विकट राक्षसियां पहरा दे रही हैं|”
हनुमान जी ने कहा – “आप मुझे जगह बता दीजिए| माता सीता से मिलना मेरा काम रहा| मैं उन राक्षसियों से भी बखूबी निबट लूंगा|”
विभीषण ने हनुमान जी को अशोक वाटिका का पता बता दिया| हनुमान जी अशोक वाटिका पहुंचे और अशोक वृक्ष के पेड़ों में छिपकर बैठ गए| नीचे माता सीता उदास बैठी थीं और उनके निकट विकराल आकृति वाली राक्षसियां बैठीं हुई, उन्हें डरा-धमका रही थीं| लेकिन माता सीता पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ| वे पूर्ववत दुखी मन से भगवान राम का स्मरण करती रहीं| अंत में राक्षसियां तंग आकर वहां से चली गईं| सीता की करुण पुकार सुनकर हनुमान जी से न रहा गया| उन्होंने श्रीराम की अंगूठी सीता की गोद में डाल दी| अंगूठी देखकर सीता आश्चर्यचकित रह गई| तभी हनुमान जी ने वृक्ष से कूदकर सीता के सम्मुख खड़े होकर प्रणाम किया| फिर बोले – “माते! यह अंगूठी मैं लाया हूं| मैं भगवान श्रीराम का सेवक हूं| मेरा नाम हनुमान है|”
सीता ने कहा – “हनुमान, मैंने तो यह नाम पहले कभी नहीं सुना| सच बताओ, कहीं तुम दुष्ट रावण के भेजे हुए तो नहीं हो?”
हनुमान जी बोले – ‘विश्वास कीजिए, मैं श्रीराम का ही सेवक हूँ| श्रीराम ने मुझे अप्पको खोजने के लिए भेजा है| वे वानरों की बड़ी सेना के साथ समुद्र तट तक पहुंच चुके हैं| शीघ्र ही आप श्रीराम से मिल सकेंगी|”
सीता ने कहा – “मुझे यकीन आ गया| लो ये चूड़ामणि ले जाओ, इसे भगवान राम को देकर कहना कि मैं यहां उनके बिना बहुत कष्ट में हूं| शीघ्र यहां पहुंचकर मुझे मुक्त कराएं है|”
हनुमान जी बोले – “माते! क्या कुछ खाने के लिए मिल सकेगा? मुझे बड़े जोर की भूख लगी है|”
सीता ने कहा – “खाना यहां कहां पवनपुत्र! राक्षस लोग तो मांस-मदिरा खाते हैं, जिन्हें छूना भी हमारे लिए पाप है| हां, कुछ फल जरूर रखे हैं| वह खा लो, शायद तुम्हारी भूख मिट सके|”
हनुमान जी बोले – “इन फलों से मेरी भूख नहीं मिटेगी माता! आज्ञा दो तो मैं इन पेडों से अपने लिए कुछ फल तोड़ लूं|”
सीता की आज्ञा पाकर हनुमान जी ने पेड़ों पर चढ़कर फल खाना और डालें तोड़कर नीचे गिराना आरंभ कर दिया| यह देखकर बाग का माली राक्षस पहरेदारों के साथ वहां आ पहुंचा| माली हनुमान जी की ओर लपका, लेकिन हनुमान जी के एक ही थपेड़े से दूर जा गिरा| फिर कई राक्षस आगे बढ़े| लेकिन हनुमान जी ने उन्हें मार भगाया| यह देखकर राक्षस भागकर रावण के पास पहुंचे और उन्हें सारी बात कह सुनाई|
यह सुनकर रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को हनुमान जी को पकड़ने के लिए भेजा| उसने हनुमान जी को पकड़ना चाहा, लेकिन हनुमान जी के एक ही घूंसे से अक्षय कुमार ने दम तोड़ दिया| बाकी राक्षस भागकर रावण के पास पहुंचे|
इस बार रावण ने मेघनाथ को दल-बल के साथ वाटिका में भेजा| उसने कई प्रकार के अस्त्रों द्वारा हनुमान जी को पकड़ना चाहा| लेकिन हनुमान जी ने उसके सारे वार बेकार कर दिए| क्रोधित होकर मेघनाथ ने उन पर ब्रह्मपाश फेंका, जिससे हनुमान जी ब्रह्मपाश में फंस गए| उन्होंने मन-ही-मन सोचा – ‘मुझे ब्रह्मपाश का अनादर करके इसे तोड़ना नहीं चाहिए, अन्यथा पितामह ब्रह्मा की महिमा कम हो जाएगी| देखता हूं कि मेघनाथ मुझे अपने पिता के पास ले जाकर क्या करता है|’
ब्रह्मपाश में बंधे हनुमान जी को लेकर मेघनाथ रावण के पास पहुंचा| रावण बोला – “हूं तो तुम हो वह वानर| तुमने मेरे बेटे सहित कई राक्षसों को मार डाला है| सच बताओ, कौन हो तुम?”
हनुमान जी ने कहा – “मैं रामदूत हनुमान हूं| माता सीता की सुधि लेने आया हूं, जिन्हें तुम अपहरण करके लाए हो| ब्रह्मपाश की वजह से मैं मजबूर हो गया, अन्यथा मैं मेघनाथ को भी मार डालता|”
यह सुनकर क्रोधित होकर रावण ने तलवार निकाल ली और हनुमान जी को मारने के लिए आगे बढ़ा| लेकिन तभी विभीषण ने उसे रोकते हुए कहा – ठहरो भैया! यह राजदूत है और किसी करना राजनीति के विरुद्ध है| तुम इसे दंड दो, पर हत्या मत करो|”
रावण ने तलवार रोकते हुए कहा – “तो फिर तुम्हीं कोई सुझाव दो कि हम इसे क्या दंड दें?”
विभीषण सोचने लगा कि किस प्रकार से हनुमान जी की जान बचाई जाए| अचानक एक उपाय उसे सूझ गया| बोले – भैया! सुना है कि वानर को अपनी पूंछ से बहुत प्रेम होता है| क्यों न इसकी पूंछ जला दी जाए| पूंछ विहीन वानर मृत समान होता है| इसे दंड भी मिल जाएगा और तुम दूत की हत्या के पाप से भी बच जाओगे|”
रावण ने कहा – “तुमने ठीक जवाब दिया है|” फिर वह सैनिकों से बोला – “सैनिको, नगर से कपड़ा, घी-तेल आदि लाओ और इसकी पूंछ में लपेटकर उसमें आग लगा दो|”
रावण की आज्ञा पाकर राक्षसों ने बहुत-सा कपड़ा लाकर हनुमान जी की पूंछ में लपेटा और उस पर घी-तेल आदि छिड़ककर उसमें आग लगा दी| आग लगते ही हनुमान जी ने हुंकार भरी और बंधन तोड़ डाले| उन्होंने एक छलांग लगाई और महल के परकोटे पर जा बैठे| जलती पूंछ से हनुमान जी ने रावण के महल में आग लगा दी। फिर हनुमान जी ने एक से दूसरे मकानों पर कूदकर लंकापुरी को आग की भेंट करना शुरू कर दिया| सारा नगर धू-धूकर जलने लगा| लंकावासी बदहवासी से इधर-उधर भागने लगे| थोड़ी ही देर में पूरी लंका जलकर नष्ट हो गई| हनुमान जी ने केवल विभीषण का घर छोड़ दिया, उसे नहीं जलाया था| फिर हनुमान जी छलांग लगाकर वापस सागर की और वह चले और एक डुबकी मारकर अपनी पूंछ की आग बुझा दी|