जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए भगवान महावीर ने – Lord Mahavir told the Panchsheel principles of Jainism

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जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए भगवान महावीर ने

भगवान महावीर का जन्म तकरीबन ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर को ‘वीर’, ‘अतिवीर’ और ‘सन्मति’ भी कहा जाता है। तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया।

 

उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो हैं- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है। महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया। यद्यपि उनकी धर्मयात्राओं का ठीक वर्णन कहीं नहीं मिलता तो भी उपलब्ध वर्णनों से यही विदित होता है कि उनका प्रभाव विशेष रूप से क्षत्रियों और व्यवसायी वर्ग पर पड़ा, जिनमें शूद्र भी बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित थे।

 

महावीर अहिंसा के दृढ़ उपासक थे, इसलिए किसी भी दिशा में विरोधी को क्षति पहुंचाने की वे कल्पना भी नहीं करते थे। वे किसी के प्रति कठोर वचन भी नहीं बोलते थे और जो उनका विरोध करता, उसको भी नम्रता और मधुरता से ही समझाते थे। इससे परिचय हो जाने के बाद लोग उनकी महत्ता समझ जाते थे और उनके आंतरिक सद्भावना के प्रभाव से उनके भक्त बन जाते थे।

महावीर स्वयं क्षत्रिय और राजवंश के थे, इसलिए उनका प्रभाव कितने ही क्षत्रिय नरेशों पर विशेष रूप से पड़ा। जैन ग्रंथों के अनुसार राजगृह का राजा बिंबिसार महावीर का अनुयायी था। वहां पर इसका नाम श्रेणिक बताया गया है और महावीर स्वामी के अधिकांश उपदेश श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर के रूप में ही प्रकट किये गये हैं। आगे चलकर इतिहास प्रसिद्ध महाराज चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म के अनुयायी बन गये थे और उन्होंने दक्षिण भारत में आकर जैन मुनियों का तपस्वी जीवन व्यतीत किया था।

 

उड़ीसा का राजा खाखेल तथा दक्षिण के कई राजा जैन थे। इसके फलस्वरूप जनता में महावीर स्वामी के सिद्धांतों का अच्छा प्रचार हो गया और उनके द्वारा प्रचारित धर्म कुछ शताब्दियों के लिए भारत का एक प्रमुख धर्म बन गया। आगे चलकर अनेक जैनाचार्यों ने जैन और हिंदू धर्म के समन्वय की भावना को भी बल दिया, जिसके फल से सिद्धांत रूप से अंतर रहने पर भी व्यवहार रूप में इन दोनों धर्मों में बहुत कुछ एकता हो गई और जैन एक संप्रदाय के रूप में ही हिंदुओं में मिल जुल गये।

 

महावीर स्वामी का सबसे बड़ा सिद्धांत अहिंसा का है, जिनके समस्त दर्शन, चरित्र, आचार−विचार का आधार एक इसी अहिंसा सिद्धांत पर है। वैसे उन्होंने अपने अनुयायी प्रत्येक साधु और गृहस्थ के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करना आवश्यक बताया है, पर इन सबमें अहिंसा की भावना सम्मिलित है। इसलिए जैन विद्वानों का प्रमुख उपदेश यही होता है− ‘अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा ही परम ब्रह्म है। अहिंसा ही सुख शांति देने वाली है। अहिंसा ही संसार का उद्धार करने वाली है। यही मानव का सच्चा धर्म है। यही मानव का सच्चा कर्म है। अहिंसा जैनाचार का तो प्राण ही है।’

 

जैनियों के आचार−विचार, अहिंसा के विषय में चाहे जैसे रूढिवादी बन गये हों, पर इसमें संदेह नहीं कि महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र का निर्माण और संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी। उसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के बीच शांति और प्रेम का व्यवहार स्थापित करना था, जिसके बिना समाज कल्याण और प्रगति की कोई आशा नहीं रखी जा सकती। यद्यपि अहिंसा का प्रतिपादन सभी धर्मोपदेशकों ने अपने−अपने ढंग से किया है, पर जिस प्रकार महावीर और बुद्ध ने अहिंसा पर सबसे अधिक बल देकर उसी को अपने धर्म का मूलमंत्र बनाया, ऐसा किसी अन्य धर्म संस्था ने नहीं किया।