किआ तू रता देखि कै पुत्र कलत्र सीगार
रस भोगहि खुसीआ करहि माणहि रंग अपार
बहुतु करहि फुरमाइसी वरतहि होइ अफार
करता चिति न आवई मनमुख अंध गवार
मेरे मन सुखदाता हरि सोइ
गुर परसादी पाईऐ करमि परापति होइ
कपड़ि भोगि लपटाइआ सुइना रुपा खाकु
हैवर गैवर बहु रंगे कीए रथ अथाक
किस ही चिति न पावही बिसरिआ सभ साक
सिरजणहारि भुलाइआ विणु नावै नापाक
लैदा बद दुआइ तूं माइआ करहि इकत
जिस नो तूं पतीआइदा सो सणु तुझै अनित
अहंकारु करहि अहंकारीआ विआपिआ मन की मति
तिनि प्रभि आपि भुलाइआ ना तिसु जाति न पति
सतिगुरि पुरखि मिलाइआ इको सजणु सोइ
हरि जन का राखा एकु है किआ माणस हउमै रोइ
जो हरि जन भावै सो करे दरि फेरु न पावै कोइ
नानक रता रंगि हरि सभ जग महि चानणु होइ

 

किआ तु रता देखि कै ॥ Kia tu rata dekhi kai

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