गांव के सभी लोग किसी कार्यक्रम के लिए तैयार हो रहे थे। शायद कोई पूजा होने वाली थी। भगवान कृष्ण ने जाकर नंद बाबा से पूछा कि गांव के लोग कौन से समारोह की तैयारी कर रहे हैं। नंद बाबा ने श्रीकृष्ण को बताया, “हम लोग हर साल वर्षा के देवता भगवान इंद्र की पूजा करते हैं। पशु ही हमारे धन हैं और उनके भोजन के लिए हमें ताजी घास की आवश्यकता होती है। वह घास वर्षा होने पर ही पहाड़ों पर उगती है। सही समय पर वर्षा हो, इसलिए हम भगवान इंद्र की पूजा करते हैं। वे हमारी पूजा से प्रसन्न होकर सही समय पर वर्षा करते हैं, जिससे चारों ओर हरियाली फैल जाती है।”
भगवान कृष्ण अपने पिता नंद बाबा की बात सुनकर संतुष्ट नहीं हुए। वे बोले, “पिता जी, वर्षा होना तो एक प्राकृतिक घटना है। इसमें इंद्र देवता का क्या श्रेय हो सकता है? यह गोवर्धन पर्वत अपनी हरी घास से हमारी गौओं का पेट भरता है। हमें तो इंद्र देवता के बजाय गोवर्धन पर्वत और गौओं की पूजा करनी चाहिए?” भगवान कृष्ण की बातें सुनकर सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए। वे काफी देर तक इस बारे में वाद-विवाद करते रहे। लेकिन कोई भी निर्णय नहीं लिया जा सका।
अंततः श्रीकृष्ण ने गांव वालों को इस बात के लिए राजी कर लिया कि उन्हें भगवान इंद्र की पूजा करने के बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। उन्होंने कहा, “मीठे और नमकीन-कई तरह के व्यंजन तैयार करो। भोग के लिए सारा दूध एकत्र कर लो। वेद-पाठ करने में निपुण पंडितों को बुलावा भेजा जाए। गरीबों को भोजन करवाने का प्रबंध किया जाए। गौओं को उनका पेट भरने तक हरी घास का चारा दिया जाए।” भगवान कृष्ण के कथनानुसार गांव वालों ने वैसा ही किया। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को प्रसाद चढ़ाया और माथा टेका। उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि गोवर्धन पर्वत ने बड़ी मात्रा में चढ़ाए गए भोग को स्वीकार कर लिया। दरअसल, यह चमत्कार भगवान कृष्ण का था, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत की विशाल आत्मा का रूप लेकर भोग का प्रसाद ग्रहण किया था।
उधर स्वर्ग में जब भगवान इंद्र ने यह सब देखा, तो उनके गुस्से की सीमा न रही। उन्होंने बादलों के एक झुंड से कहा, “देखो, अब ग्वालों की जाति मुझे अनदेखा कर रही है। उन्होंने आज गोवर्धन पर्वत को प्रसाद चढ़ाया है।” भगवान इंद्र क्रोध और द्वेष के मारे बौखला गए। वे भगवान कृष्ण के दिव्य रूप को भूल गए और निश्चय किया कि वे गांव वालों का नाश करने के लिए एक तूफान भेजेंगे। उन्होंने बादलों को आदेश दिया, “जाओ, गोवर्धन पर्वत पर घनघोर वर्षा करके ग्वालों की जाति का नाश कर दो। मैं तुम्हारे पीछे आ रहा हूं।” भगवान इंद्र के आदेशानुसार गोवर्धन पर्वत पर मूसलाधार वर्षा होने लगी। वर्षा के साथ-साथ बादल गरज रहे थे और बिजली कड़क रही थी। तेज हवा पेड़ों को उखाड़ने लगी। गाय भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगीं। गांव वाले भी डर के मारे अपने घरों की ओर भागे।
दोपहर का समय था, लेकिन तूफान के कारण चारों ओर अंधेरा-सा छा गया था। सूरज कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। गांव वालों ने भगवान कृष्ण से विनती की, “भगवान इंद्र कुपित हो गए हैं। हमने तो वही किया, जो आपने कहा था। अब कृपा करके इस घनघोर वर्षा से हमारी रक्षा करें।” भगवान कृष्ण ने गांव वालों को दिलासा दिया, “हमने गोवर्धन पर्वत की पूजा की है। यही हमारा रक्षक है। अब यही हमारी रक्षा करेगा।” इतना कहकर भगवान कृष्ण पहाड़ की तलहटी में चले गए। उन्होंने ग्रामीणों से कहा कि वे लोग अपने पशुओं को लेकर पहाड़ की ओट में आ जाएं।
जब सभी लोग अपने पशुओं सहित गोवर्धन पर्वत के निकट खड़े हो गए, तो अचानक भगवान कृष्ण ने एक करिश्मा किया। उन्होंने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर छतरी की तरह सबके ऊपर तान दिया। पूरे सात दिनों तक लगातार वर्षा होती रही और भगवान कृष्ण गोवर्धन पर्वत को उठाए खड़े रहे। भगवान इंद्र श्रीकृष्ण की शक्ति देखकर हैरान हो गए और उन्होंने बादलों को वापस आने का आदेश दे दिया।
जब वर्षा रुक गई, तो सभी लोग वहां से निकलकर अपने घरों की ओर चल दिए। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उसके मूल स्थान पर रख दिया। यह देखकर भगवान इंद्र आश्चर्य चकित हो गए। वे इस बात का यकीन नहीं कर सके कि कोई बालक ऐसा करिश्मा कर सकता है। तभी भगवान इंद्र को एहसास हुआ कि भगवान विष्णु ने ही भगवान कृष्ण के रूप में धरती पर जन्म लिया है। उन्होंने सोचा, ‘मैं भी कितना मूर्ख था। भगवान कृष्ण तो दैवीय शक्तियों से भरपूर हैं। मैंने अपने क्रोध और द्वेष के कारण महाप्रभु को चुनौती दे दी।’
तत्पश्चात भगवान इंद्र धरती पर आए और भगवान कृष्ण के आगे हाथ जोड़कर अपने किए की माफी मांगने लगे। उन्होंने प्रभु का स्तुति गान किया, जिससे वे प्रसन्न हो गए। दयालु भगवान कृष्ण ने उन्हें स्नेह से अपने गले लगा लिया। इस तरह भगवान कृष्ण ने भगवान इंद्र का अहंकार तोड़ दिया तथा उन्हें विनम्रता और दयालुता का पाठ पढ़ाया। भगवान इंद्र भगवान कृष्ण को नहीं पहचान पाए। उन्होंने वर्षा और तूफान के साथ उनका अपमान करना चाहा। लेकिन भगवान कृष्ण ने गांव वालों की रक्षा करके यह दिखा दिया कि वे अपनीछोटी उंगली पर संपूर्ण ब्रह्माण्ड को संभाल सकते हैं। तभी से भगवान कृष्ण ‘गिरधारी’ के नाम से भी जाने जाते हैं। यही नहीं, वे ‘गिरधर’ और ‘गोवर्धनधारी’ भी कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया था।
उस दिन गांव वालों को यह शिक्षा मिली कि उन्हें डर के मारे किसी भी देवी-देवता की पूजा नहीं करनी चाहिए। पूजा का संबंध प्रेम से होता है। भक्ति और आस्था के साथ किया गया पूजन ही सफल होता है। आडंबर से की जाने वाली पूजा सफल नहीं मानी जाती। प्रेम, त्याग और समर्पण द्वारा की गई पूजा को ही प्रभु ग्रहण करते हैं।तभी से गांव वाले हर वर्ष गोवर्धन पर्वत की उसी तरह पूजा करने लगे, जिस तरह भगवान कृष्ण ने उन्हें सिखाया था। लेकिन भगवान इंद्र ने फिर कभी गांव वालों को अपना रौद्र रूप नहीं दिखाया।
अब गांव वालों के लिए गोवर्धन पूजा एक आनंद का उत्सव बन गया था। समारोह से कई दिन पहले ही गांव वालों की तैयारियां आरंभ हो जातीं। पूजा के अलावा अनेक रंगारंग कार्यक्रम भी आयोजित होते, जिनमें आसपास के गांव वाले भी हिस्सा लेते। इस तरह सभी लोगों को सांस्कृतिक रूप से घुलने-मिलने का मौका मिला।