शहर के मध्य में स्थित ये पवित्र दरगाह मुंबई की मान्यता प्राप्त सरहद है। सुन्नी समूह के बरेलवी संप्रदाय द्वारा इस मंदिर की देखरेख की जाती है। यहां हर धर्म के लोग आकर अपनी मनोकामना का धागा बांधकर जाते हैं। उन्हें यह उम्मीद होती है कि यहां मांगी गई मुराद जरूर पूरी होती है।
यह दरगाह वर्ली की खाड़ी से 500 गज की दूरी पर समुद्र में एक छोटे द्वीप पर स्थित है। यह शहर की सीमा महालक्ष्मी से एक संकरे सेतुमार्ग द्वारा जुड़ा है। इस पुल में कोई रेलिंग नहीं है किंतु ज्वार के आने पर रस्सी बांध दी जाती है। इसलिए दरगाह तक तभी जाया जा सकता है जबकि समुद्र का जलस्तर कम हो। यह 500 गज की यात्रा जिसके दोनों तरफ समुद्र हो यहां की यात्रा की मुख्य आकर्षण है।
हाजी अली की दरगाह की स्थापना 1631 ई में की गयी थी । इसका निर्माण हाजी उसमान रनजीकर, जो तीर्थयात्रियों को मक्का ले जाने वाले जहाज के मालिक थे, ने कराया था। समुद्री नमकीन हवाओं के कारण इस इमारत को काफी नुकसान हुआ है। सन 1960 में आखिरी बार दरगाह का सुधार कार्य हुआ था। सुन्नी समुदाय के लोग इस मजार की देख-रेख करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि हाजी अली शाह बुखारी के निधन के पश्चात उनकी बहन ने उनके अधूरे स्वप्न को पूरा करने का बीड़ा उठा लिया था। वह भी इस्लाम के प्रसार-प्रचार में लीन हो गई थीं। वर्ली की खाड़ी से कुछ दूरी पर उनका मकबरा भी स्थित है।
हाजी अली की यह दरगाह 4500 वर्ग मीटर तक फैली हुई है, जिसमें 85 फीट ऊंचा मीनार स्थित है। दरगाह के मुख्य भाग तक पहुंचने से पहले काफी लंबा मार्ग तय करना होता है। दरगाह के भीतर हाजी अली शाह बुखारी का मकबरा लाल और हरे रंग की चादर से ढका रहता है।
यह दरगाह करीब 400 साल पुरानी है, जिसकी कई बार मरम्मत की जा चुकी है। मुख्य परिसर में पहुंचने पर आपको रंगीन कांच की नक्काशी से लैस स्तंभ नजर आएंगे, जिन पर अल्लाह के 99 नाम लिखे हुए हैं। इसके अलावा इस दरगाह के चारों ओर चांदी के खंबों का दायरा बना हुआ है, जो बेहद खूबसूरत हैं।
अन्य दरगाहों की तरह यहां भी महिलाओं और पुरुषों के प्रार्थना करने के लिए अलग-अलग स्थान हैं। कुल-मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हाजी अली शाह बुखारी की दरगाह मुस्लिम नक्काशी और कलाकारी का एक आकर्षक नमूना है। दरगाह तक पहुंचने के लिए जिस मार्ग को तय करना होता है वह दुकानों से भरा है, जहां आपको दरगाह पर चढ़ाने वाली चादर से लेकर फूल और अन्य सभी समान उपलब्ध हो जाएंगे। प्रत्येक आगंतुक मस्जिद में प्रवेश से पहले अपने जूते निकालते हैं।सप्ताह के प्रत्येक शुक्रवार को हाजी अली की दरगाह पर सूफी संगीत और कव्वाली की महफिल सजती है। आंकड़ों के अनुसार बृहस्पतिवार और शुक्रवार को यहां धर्मों के बंधन से मुक्त करीब 50 हजार से भी श्रद्धालु पहुंचते हैं, जिनमें देश-विदेश से आए पर्यटक भी शामिल हैं।