एक दिन गुरु अर्जन देव जी के पास चड्डे जाति के दटू, भानू, निहालू और तीर्था आए| उन्होंने आकर गुरु जी से प्रार्थना की महाराज! हमें तो आपके वचनों की समझ ही नहीं आती| एक जगह आप जी लिखते हैं –
“करे कराए आपि प्रभू, सभु किछु तिसही हाथ|”
पर दूसरे स्थान पर आप जी यह लिखते हैं –
जैतसरी महला ५ वार सलोका नालि
“जैसा बीजै सो लुणै करम इहु खेत||”
गुरु जी कहने लगे हे भाई! जिस प्रकार बुद्धिमान वैद किसी रोगी का रोग देखकर दवाई देता है उसी प्रकार सिख के जीवन-व्यवहार, रहणी-बहणी को देख कर उपदेश दिया जाता है| जैसे कि जो दुनियादारी के कामों में लगा हुआ करम करता है, उसको अच्छे कर्मों की प्रेरणा के लिए ‘जैसा बीजै सो लुणै’ का अधिकारी समझ कर उपदेश दिया जाता है|
परन्तु जो कोई विचारशील होकर परमात्मा की भक्ति करता है उसको ‘करे कराए आपि प्रभू’ का उपदेश दिया जाता है| ऐसा ना हो कि कहीं उसको अपनी करनी का गर्व हो जाए| इस प्रकार गुरु का उपदेश सिख की अध्यात्मिक अवस्था को ध्यान में रखकर दिया जाता है| इसलिए सिख को किसी प्रकार का भ्रम नहीं करना चाहिए| उसको अपनी मानसिक अवस्था के अनुसार उपदेश ग्रहण करना चाहिए|