आज लगेगा चंद्र ग्रहण, शुरू हुआ सूतक काल, इन नियमों का अवश्य करें पालन, नही तो हो सकता भारी नुकसान
नई दिल्ली : आज यानी 8 नवंबर को साल का आखिरी चंद्र ग्रहण लग रहा है। वैदिक ज्योतिष गणना के अनुसार सूर्य ग्रहण होने पर सूतक काल ग्रहण के शुरू होने से 12 घंटे पहले जबकि चंद्र ग्रहण होने पर 9 घंटे पहले से सूतक शुरू हो जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ग्रहण पर सूतक काल को शुभ नहीं माना जाता है। सूतक काल के दौरान पूजा-पाठ और शुभ कार्य वर्जित होता है। शाम 05 बजकर 20 मिनट से शाम 06 बजकर 20 मिनट तक वास्तविक ग्रहण काल है।
9 ग्रहण के समय पालनीय नियम
*1. ग्रहण के समय भगवान का चिंतन, जप, ध्यान करने पर उसका लाख गुना फल मिलता है, ग्रहण के समय हज़ार काम छोड़ कर मौन और जप करिए।
*ग्रहण के समय सोने से रोग बढ़ते हैं।
*ग्रहण के समय सम्भोग करने से सुअर की योनि मिलती है। ”
*ग्रहण के समय मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए, दरिद्रता आती है।”
*4. ग्रहण के समय धोखाधड़ी और ठगाई करने से सर्पयोनि मिलती है।”
*5. ग्रहण के समय शौच नहीं जाना चाहिए, वर्ना पेट में कृमि होने लगते हैं।
*6. ग्रहण के समय जीव-जंतु या किसी की हत्या हो जाय तो नारकीय योनि में जाना पड़ता है।”
*7. ग्रहण के समय भोजन व मालिश करने वाले को कुष्ट रोग हो जाता है।
18. ग्रहण के समय पत्ते, तिनके, लकड़ी, फूल आदि नहीं तोड़ने चाहिए।
1 *9. स्कन्द पुराण के अनुसार ग्रहण के समय दूसरे का अन्न खाने से 12 साल का किया हुआ जप, तप, दान स्वाहा हो जाता है।
*10. ग्रहण के समय अपने घर की चीज़ों में कुश, तुलसी के पत्ते अथवा तिल डाल देने चाहिए ।”
*11. ग्रहण के समय रुद्राक्ष की माला धारण करने से पाप नाश हो जाते हैं।
*12. ग्रहण के समय दीक्षा अथवा दीक्षा लिए हुए मंत्र का जप करने से सिद्धि हो जाती है।’
चन्द्रग्रहण में ग्रहण से 3 प्रहर (9 घंटे) पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए । बूढ़े वालक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं।
** ग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुन्तुद नरक में वास करता है ।”
• सूतक से पहले पानी में कुशा, तिल या तुलसी पत्र डाल के रखें ताकि सूतक काल में उसे उपयोग में ला सकें। ग्रहणकाल में रखे गये पानी का उपयोग ग्रहण के बाद नहीं करना चाहिए ।”
ग्रहण-वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं
होते । पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए ।””• ग्रहण वेध के प्रारम्भ में तिल या कुश मिश्रित जल का उपयोग भी अत्यावश्यक परिस्थिति में ही करना चाहिए और ग्रहण शुरू होने से अंत तक अन्न या जल नहीं लेना चाहिए ।
ग्रहण पूरा होने पर स्नान के बाद सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो उसका शुद्ध बिम्ब देखकर अर्घ्य दे कर भोजन करना चाहिए ।’
• ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए। स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं।”
• • ग्रहण के स्नान में कोई मंत्र नहीं बोलना चाहिए। ग्रहण के स्नान में गरम जल की अपेक्षा ठंडा जल, ठंडे जल में भी दूसरे के हाथ से निकाले हुए जल की अपेक्षा अपने हाथ से निकाला हुआ, निकाले हुए की अपेक्षा जमीन में भरा हुआ, भरे हुए की अपेक्षा बहता हुआ, (साधारण) बहते हुए की अपेक्षा सरोवर का, सरोवर की अपेक्षा नदी का अन्य नदियों की अपेक्षा गंगा का और गंगा की अपेक्षा भी समुद्र का जल पवित्र माना जाता है ।
ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरूरतमंदों को वस्त्रदान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है ।
• ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ने चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिए व दंतधावन नहीं करना चाहिए ।”
• ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल-मूत्र का त्याग, मैथुन और भोजन ये सब कार्य वर्जित हैं ।
• • ग्रहण के समय कोई भी शुभ व नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए ।’
ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है । गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए ।
भगवान वेदव्यासजी ने परम हितकारी वचन कहे हैं सामान्य दिन से ग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) दस लाख गुना यदि गंगाजल पास में हो तो ग्रहण में 10 करोड़ गुना फलदायी होता है ।
• • ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम-जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है ।
• ग्रहण के समय उपयोग किया हुआ आसन, माला, गोमुखी ग्रहण पूरा होने के बाद गंगा जल में धो लेना चाहिए ।”
• • ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षों का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है
। (स्कन्द पुराण) *
ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिए । (देवी भागवत) *