हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं की भूमि है। प्रदेश के कोने-कोने में बहुत से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, लेकिन ऊना जिला में स्थित प्रसिद्ध धर्मिक स्थल चिन्तपूर्णी काअपनी ही महत्व है। चिन्तपूर्णी अर्थात चिन्ता को दूर करने वाली देवी जिसे छिन्नमस्तिका भी कहा जाता है। छिन्नमस्तिका का अर्थ है-एक देवी जो बिना सर के है। कहा जाता है कि यहां पर पार्वती के पवित्र पांव गिरे थे।
चिन्तपूर्णी जाने के लिए होशियारपुर, चंडीगढ़, दिल्ली, धर्मशाला, शिमला और बहुत से अन्य स्थानों से सीधे बसें यहां पहुंचती हैं। यहां पर वर्ष में तीन बार मेले लगते हैं। पहला चैत्रा मास के नवरात्रों में, दूसरा श्रावण मास के नवरात्रों में, तीसरा अश्विन मास के नवरात्रों में। नवरात्रों में यहां श्रधालुयों की काफी भीड़ लगी रहती है। चिन्तपूर्णी में बहुत सी धर्मशालाएं हैं, जो बस अड्डे के पास स्थित है और कुछ मन्दिर के निकट स्थित हैं।
मन्दिर का इतिहास इस प्रकार से है। प्राचीन कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि 14वीं शताब्दी में माई दास नामक दुर्गा भक्त ने इस स्थान की खोज की थी। माई दास का जन्म अठूर गांव, रियासत पटियाला में हुआ था। माई दास जी के दो बड़े भाई थे-दुर्गादास व देवीदास। माई दास का अध्कितर समय पूजा-पाठ में ही व्यतीत होता था। इसलिए वह परिवार के कार्यों में हाथ नहीं बटा पाते थे। इस लिए भाईयों ने माई दास जी को परिवार से अलग कर दिया। माई दास ने अपना समय पूजा-पाठ व दुर्गा भक्ति में व्यतीत करना जारी रखा। एक दिन माई दास जी अपने ससुराल जा रहे थे। रास्ते में एक वट वृक्ष के नीचे आराम करने बैठ गए। इसी वट वृक्ष के नीचे आजकल दुर्गा भगवती जी का मन्दिर है। वहां घना जंगल था। तब इस जगह का नाम छपरोह था, जिसे आजकल चिन्तपूर्णी कहते हैं।
थकावट के कारण माईदास की आंख लग गई और स्वप्न में उन्हें दिव्य तेजस्वी कन्या के दर्शन हुए, जो उन्हें कह रही थी कि माईदास! इसी वट वृक्ष के नीचे बीच में मेरी पिंडी बनाकर उसकी पूजा करो। तुम्हारे सब दुख दूर होंगे। माईदास को कुछ समझ न आया और वह ससुराल चले गए, ससुराल से वापस आते समय उसी स्थान पर माईदास जी के कदम फिर रुक गए। उन्हें आगे कुछ न दिखाई दिया। वह फिर उसी वट वृक्ष के नीचे बैठ गए और स्तुति करने लगे। उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की। हे दुर्गा मां यदि मैंने सच्चे मन से आपकी उपासना की है तो दर्शन देकर मुझे आदेश दो। बार-बार स्मृति करने पर उन्हें सिंह वाहनी दुर्गा के दर्शन हुए। देवी ने कहा कि मैं उस वट वृक्ष के नीचे चिरकाल से विराजमान हूं। लोग यवनों के आक्रमण तथा अत्याचारों के कारण मुझे भूल गए हैं। तुम मेरे परम भक्त हो। अतः यहां रहकर मेरी आराधना करो। यहां तुम्हारे वंश की रक्षा मैं करुंगी।
माईदास जी ने कहा कि मैं यहां पर रहकर कैसे आपकी आराधना करुंगा। यहां पर घने जंगल में न तो पीने योग्य पानी है और न ही रहने योग्य उपयुक्त स्थान। मां दुर्गा ने कहा कि मैं तुमको निर्भय दान देती हूं कि तुम किसी भी स्थान पर जाकर कोई भी शिला उखाड़ो वहां से जल निकल आएगा। इसी जल से तुम मेरी पूजा करना। आज इसी वट वृक्ष के नीचे मां चिन्तपूर्णी का भव्य मन्दिर है और वह शिला भी मन्दिर में रखी हुई है, जिस स्थान पर जल निकला था वहां आज सुन्दर तालाब है। आज भी उसी स्थान से जल निकाल कर माता का अभिषेक किया जाता है। पुराणों के अनुसार यह स्थान चार महारुद्र के मध्य स्थित है। एक और कालेश्वर महादेव, दूसरी ओर शिववाड़ी, तीसरी ओर नारायण महादेव, चौथी ओर मुचकंद महादेव हैं।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ऐसा विश्वास किया जाता है कि सती चंडी की सभी दुष्टों पर विजय के उपरांत, उनके दो शिष्यों अजय और विजय ने सती से अपनी खून की प्यास बुझाने की प्रार्थना की थी। यह सुनकर सती चंडी ने अपना मस्तिष्क छिन्न कर लिया। इसलिए सती का नाम छिन्नमस्तिका पड़ा।