एक बार राजा हरिश्चंद्र के सपने में गेरुआ वस्त्र धारण किए हुए एक साधु आए, जिन्होंने सम्राट से उनका पूरा राज पाठ दक्षिणी में मांगा लिया। राजा इतने दयालु थे, कि वह कभी भी अपने शरण में आए हुए किसी भी साधु को खाली हाथ नहीं लौटने देते थे, इसलिए राजा हरिश्चंद्र ने अपना पूरा राज्य उन साधु के नाम कर दिया। अगले दिन जब सवेरा हुआ तो राजा के दरबार में एक साधु ने दर्शन दिया।महाराजा हरिश्चंद्र को उस साधु ने अपना सपना याद करवाया, जिसमें उन्होंने अपना सारा राजपाट साधु के नाम कर दिया था।जैसे ही हरीश चंद्र जी को अपना सपना स्मरण हुआ, तो बिना किसी देरी के उन्होंने हामी भरी और अपना विशाल राज्य उन साधु के नाम कर दिया। दरअसल साधु के वेश में वह महात्मा और कोई नहीं, बल्कि स्वयं महर्षि विश्वामित्र थे जो राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने आए थे।
इसके आगे साधु ने राजा से दक्षिणा की मांग की। हरीश चंद्र जी ने अपने सिपाहियों को शाही खजाने में से भेंट लाने के लिए कहा। लेकिन साधु ने उन्हें स्मरण कराया की राजा ने तो पहले ही सब कुछ साधु के नाम कर दिया है, तो वह राजकोष में से खजाना भला उन्हें दक्षिणा के रूप में कैसे दे सकते हैं।राजा हरिश्चंद्र बड़े दुविधा में पड़ चुके थे, उसी बीच साधु ने क्रोध में आकर उनसे कहा, कि यदि आप मुझे दक्षिणा नहीं दे सकते तो आप मेरा अपमान कर रहे हैं। राजा ने साधु को आश्वासन देते हुए कहा, कि हे देवात्मा मैं आपको दक्षिणा जरूर दूंगा, बस मुझे कुछ समय दीजिए।इसके बाद महाराज अपने पत्नी और पुत्र के साथ राज्य को छोड़कर पावन नगरी काशी में चले गए। यहां उन्होंने स्वयं को बेचना चाहा लेकिन कोई भी उन्हें खरीदने को तैयार ही नहीं था।
थोड़े परिश्रम के बाद राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और पुत्र को एक ब्राह्मण दंपत्ति के यहां बेच दिया जहां, रानी तारामती एक सेविका के रूप में काम करने लगी। राजा ने स्वयं को श्मशान में रहने वाले एक चांडाल को बेचा, जो अंतिम संस्कार किया करता था। चांडाल ने महाराजा हरिश्चंद्र को खरीद लिया और एक सेवक बनाकर रख लिया। महाराजा ने कैसे भी स्वयं तथा अपनी पत्नी और पुत्र को नीलाम कर के दक्षिणा इकट्ठा किया, जिससे उन्होंने साधु को दक्षिणा चुकाया। सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन एक दिन जब रोहिताश्व वन में भगवान की पूजा के लिए पुष्प इकट्ठा कर रहा था, तो उसे एक सांप ने दंस लिया जिसके बाद वह मूर्छित हो गया। तारामती अपने मूर्छित पुत्र को लेकर चारों ओर मदद की गुहार लगा रही थी, लेकिन तब तक रोहिताश्व की मृत्यु हो चुकी थी।
तारामती अपने पुत्र के मृत शरीर का अंतिम संस्कार करने के लिए शमशान पहुंची तो वहां उनकी मुलाकात अपने पति राजा हरिश्चंद्र से हुई। तारामती ने पुत्र की मृत्यु की बात बताई और बताया कि उनके पास शमशान कर चुकाने के लिए कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी राजा हरिश्चंद्र जी अपने मालिक के प्रति वफादार रहे और बिना श्मशान कर चुकाए अपने खुद के पुत्र का अंतिम संस्कार करने से इंकार कर दिया।विवश होकर तारामती ने साड़ी का आंचल फाड़कर शमशान कर चुकाने का निश्चय किया। जैसे ही रानी तारामती ने अपना आंचल फाड़ने की चेष्टा की उसी क्षण आकाश से मेघ गर्जना हुई और एक आकाशवाणी हुई।उस आकाशवाणी मे महर्षि विश्वामित्र जी ने महाराजा हरिश्चंद्र को आशीर्वाद दिया और साथ ही उनके पुत्र रोहिताश्व को भी जीवित कर दिया। तथा साथ ही उनका पूरा राज पाठ ज्यों का त्यों वापस लौटा दिया। उसी क्षण श्मशान में ही देवताओं ने राजा हरिश्चंद्र और रानी तारामती पर पुष्प वर्षा किया। राजा हरिश्चंद्र जी का नाम भी पूरे विश्व में बड़े आदर सत्कार के साथ लिया जाता है। राजा हरिश्चंद्र जी के जीवन से प्रेरित होकर कई नाट्य कलाएं और कथाएं की जाती हैं।